Monday, December 30, 2013

आधी स्वंत्रता

निष्ठुर हैं नियति, काल, सगे सभी औ' समाज,
व्याकुल, संतप्त, भीरु, अबला दुहित्रि आज।
स्वतंत्रता सर्वार्थ वचन दे संग्राम में,
दिया हमे आधा फल, पूरे के दाम में।

मर्यादा, लज्जा, स्त्री-धर्मं के सूतों से,
महापाश बुन मनुज-जननी के पूतों ने।
रक्त के प्रपात से होते हैं ये तृप्त,
ताड़ना अन्याय में समाज नर-प्रधान लिप्त।

धर्मं-संस्कार के नक़ाब में अनर्थ छुपा,
थोपते स्वतंत्र मनन-विचार पे अनर्गलता।
कहते हैं, "खतरे में पड़ गए हैं संस्कार",
माँगा जो बेटियों ने जीने का स्वाधिकार।

बात संस्कारों की करते हैं वो , जो की 
न्याय और प्रेम से रहे सदैव अजनबी।
धर्मं उनका धर्मं नहीं, मनगढ़ंत बातें हैं,
दमन उनकी नीति है भय की वो खाते हैं।

करने को जीवन की कल्पना को साकार,
देव ने बनाए स्त्री-पुरुष, दो आधार।
दो में से एक यदि आहात हो जाये,
मानवता का पुर, बचेगा न बचाए।


धर्मं की है बात, यदि धर्मं को है मानना,
तो आवश्यक पुरुषों का पुरुष-धर्मं जानना।
पारंगत हैं यदि स्त्री-धर्मं में वो इतने,
आप ही स्त्री बन जाएँ, रोका इनको किसने?

जीवन है जीवित, स्त्री-पुरुष के योग से,
योग हुआ है संभव, प्रेम के प्रयोग से।
प्रेम का विकल्प नहीं ताड़ना बन पाएगी,
योग बनेगा वियोग, सभ्यता ढह जायेगी।

सुनो सुतों प्रलय के इस बढ़ते पदचाप को,
काम लो विवेक से, अरे संभालो आप को।
तुच्छ शौर्य के मद में दानव तुम हो बने,
आँख खोल देखो, आत्महत्या पर हो ठने।

प्रेम औ' चंचलता भय में विलीन गर होंगी,
बर्बरता प्रभु बनेगी, बर्बर सुख के भोगी।
बर्बरता की अग्नि तुम्हे भी जलायेगी,
वश में न होगा कुछ, मनुजता पछताएगी।

जुड़ें सभी स्त्री-पुरुष, सभ्यता के पथगामी,
प्रेम हो सर्वस्व, हों स्वतंत्रता के अभिमानि।
ह्रदय और अस्थियों से, पत्तों और टहनियों से,
सीखें हम मनुज-धर्मं, प्रकृति-प्राण-इन्द्रियों से।

जीवन का आधार, है ह्रदय की धड़कन,
अस्थियो का धर्म किन्तु, है ह्रदय का संरक्षण।
पत्तों की हर्याली, पेड़ो का जीवन है,
शाखों का धर्मं अपितु, जीवन-रस-वितरण है।

आत्म-निरीक्षण व्रत लें, उंगलियाँ नहीं उठें,
दुसरो के धर्म का न प्रतिनिधित्व हम करें।
परस्पर सम्मान हो, दुर्विचार ह्रास हो,
ऐसे एक युग में प्रभु, विश्व का निवास हो!!

-आशुतोष