Sunday, November 23, 2014

रवीश की कलम से - पर न जाने किस प्रेरणा से

"प्रबुद्ध" पत्रकार रवीश का ये लेख हमारे समाज में प्रबुद्ध की आज जो अवधारणा और प्रचलित समझ है, उसपर प्रश्नचिन्ह लगाता है।
रवीश के इस लेख का सार समझें तो एकाकी बिंदु यही है कि "मोदी की बातों के तथ्यो पर न जाएँ अथवा उनसे प्रभावित न हों"। लोगों को ये याद दिलाने की जरूरत नही है कि रवीश खुद किस पार्टी के अतिप्रिय हैं। यह भी नहीं कि उस पार्टी के कई पुराने सदस्यों ने इनपर अपनी पत्रकारिता के माध्यभ से पार्टी की मुखालफत करने का और उसी पार्टी के माध्यम से राजनीतिक महत्वाकांक्षा रखने का आरोप लगाया है।
हम इन आरोपों को अगर कपोलकल्पित मानते है, तो परिदृश्य और भी गम्भीर हो जाता है। अगर ये मान लें कि रवीश का कोई राजनीतिक झुकाव नहीं है तो इस लेख को पढकर ये सवाल उठेगा कि सोच समझ की ऐसी कमी के बावजूद यदि कोई आज पत्रकारिता में नाम कमा लेता है, तो कैसा स्तर है हमारे देश में पत्रकारिता का??
रवीश को बडी तकलीफ है कि मोदी ने ऑस्टेलिया दौरे की बात झारखण्ड के चुनाव प्रचार में की और लोगों को बताया कि आधुनिक तकनीक के माध्यम से केले मे विटामिन ए की मात्रा बढ सकती है, अथवा ऑस्ट्रिया के वैज्ञानिक इसमें मदद कर सकते हैं। मैं ये नहीं समझ पाया कि उनको तकलीफ क्यों हुई।

  • क्या वो ये नहीं जानते कि बायोटेकनालाॅजी मे जीन ग्राफ्टिंग के माध्यम से ये सम्भव है?
  • या वो ये मानते हैं कि भारत को हर बार करोडों की लागत से और कई वर्ष लगाकर खुद ही पुनः रीसर्च कर, खोजी हुइ चीज फिर खोजनी चाहिये? अगर ऐसा है, तो यहाँ सामान्य बोध की विषम कभी नजर आती है।
  • शायद उपरोक्त कारण ना हों। पर तब क्या रवीश ये कह रहैं कि अधिक विटामिन वाले केले का होना खेतिहर आदिवासियों के मतलब की बात नहीं इसलिए ये बात उन्हें बताना बेमानी है? ऐसे में रवीश का कृषि प्रकिया और अर्थव्यवस्था का ज्ञान कटघरे में आता है।


रवीश इस बात से खफा हैं कि लोगों में ये संदेश गया कि मोदी का ऑस्टेलिया दौरा किसानों के लिए था। कोई इन्हें बताए कि एक विदेशी दौरे पे सिर्फ एक बात नहीं होती, अधिकाधिक विषयों पर पारस्परिक लाभ हेतु समझौतों की कोशिश होती है। अगर एग्रो-फॉरेस्ट्री, बायोटेकनालाॅजी के क्षेत्र में भी आचार-विचार हुए तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। ऐसे में अगर रवीश इस बात के सबूत देते कि बायोटेकनालाॅजी में सहयोग की कोई बात नहीं हुई या कम से काम केले में विटामिन बढाने पर बात नहीं हुई या इसके गिनाए गए लाभ गलत हैं, तो उनके संशय में तूल होता।
रवीश की मानें तो अन्तरराष्टीय दौरों का सम्पूर्ण ब्योरा भाषण में देना ही उनकी ईमानदारी के मापदण्ड पे खरा उतरेगा... भले ही श्रोताओं को यह अप्रासंगिक लगे! 
एक अधेड युवा नेता ने ग्रामीणों को "जुपिटर की एस्केप वेलाॅसिटी" के बारे में बता कर अप्रासंगिक बात की थी, लोगों ने उनको "पप्पू" की उपाधि से सम्मानित किया। अगर रवीश ऐसी आकांक्षाएं और समझ पालते हैं, तो उनका सौभाग्य है कि उनकी कथित राजनीतिक महत्वाकांक्षा चरितार्थ नही हुई अब तक।
रवीश को ये बात बडी रुचिमय लगी कि नितीश कुमार मोदी के भाषणों को धराशायी करने के नए नए प्रयोग कर रहे हैं। पर उन्हें इस बात से कोई तकलीफ नहीं कि लोकतंत्र के उत्सव, चुनाव में, जहाँ नेताओं नई दिशा, नया उमंग, नया विश्वास और बडी महत्वाकांक्षाएँ देने का काम करना चाहिए, वहा ये नेता सिर्फ दूसरों को नीचा दिखाकर खुद सत्ता में आना चाहते हैं। सबकी नकारात्मकता रवीश को रुचिमय लगी पर मोदी के सकारात्मक संदेश रास नहीं आए। क्या ये निष्कर्ष गलत होगा कि मात्र सोच समझ की कमी नहीं, ये लेख रवीश की नकारात्मकता भी दर्शाता है?
घूम फिर कर एक बिंदु है जहाँ यह लेख कुछ काम की बात करता है। वह ये, कि मोदी ने अपने भाषण में कालेधन और भ्रटाचार की बात नहीं की। अगर नहीं किया तो उन्हें इस दिशा में अपने किए गए काम का उल्लेख और आगे की राह का ब्यौरा देना चाहिए। पर ये कोई एकाकी मुद्दा नहीं है जिसपर प्रशासनिक और राष्ट्रीय लक्ष्य साधे जाएँगे। कुछ छोटी पार्टियों के लिए यह मूल और एकमात्र मुद्दा है, पर वो इसलिए क्योंकि शायद बहुमुखी विकास की दिशा में सोचने का बौद्धिक सामर्थ्य अब तक वे नहीं जुटा पाई हैं, या शायद इच्छाशक्ति की कमी है।
जो भी हो, यह लेख रवीश की वैचारिक प्रवाह और उनकी विचारशीलता, सामान्य एवं वैज्ञानिक ज्ञान और मनःस्थिति पर कुछ कडे प्रश्न उठाता है। इससे भी गम्भीर पत्रकार समुदाय की दशा है, जहाँ ऐसे वैचारिक अभावों के बावजूद लोग नामज़दा हो पाते हैं।